इमरजेंसी 1975 के पूरे 50 साल, इंदिरा गांधी का सबसे विवादित फैसला

Black and white photograph of Indira Gandhi in a contemplative pose, partially veiled in a saree, with the bold text “The Emergency in India 1975” overlaid on the left side, symbolizing the political state of emergency declared in India during that year.

The Emergency in India1975 : जब लोकतंत्र सांस रोक कर खड़ा था
25 जून 1975 की रात भारत के इतिहास की सबसे काली रातों में गिनी जाती है। यह वह समय था जब लोकतंत्र का गला घोंटकर देश को आपातकाल की अंधेरी सुरंग में धकेल दिया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आधी रात को राष्ट्रपति से आपातकाल की घोषणा करवा दी, और सुबह तक पूरा देश अंधेरे में सिहर चुका था।

आपातकाल की पृष्ठभूमि 12 जून 1975 को तैयार हो चुकी थी जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया। आरोप थे कि उन्होंने चुनाव में सरकारी अफसर का गैरकानूनी रूप से इस्तेमाल किया। यह फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी पर इस्तीफे का भारी दबाव बनने लगा। लेकिन उनके बेटे संजय गांधी और नजदीकी लोगों — जैसे आर. के. धवन, बंसीलाल और देवकांत बरुआ — ने उन्हें इस्तीफा न देने की सलाह दी। संजय गांधी ने न सिर्फ इस्तीफे का विरोध किया बल्कि आंदोलन को दबाने की रणनीति भी बनाई।

13 जून से ही उनके समर्थन में रैलियों का आयोजन शुरू हो गया। दिल्ली की सड़कों पर ‘इंदिरा जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे। प्रेस को नियंत्रित करने की योजना भी शुरू हो चुकी थी। पत्रकारों को धमकाया गया और अखबारों में इंदिरा विरोधी खबरें रोकने के आदेश दिए गए।

23 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी की संसदीय सदस्यता पर आंशिक रोक लगाई — वह संसद में बोल सकती थीं, लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं। यह फैसला न तो इंदिरा को पूरी तरह राहत देता था, न ही विपक्ष को उम्मीद। इस असमंजस के माहौल में संजय गांधी और उनके सहयोगी पहले ही इमरजेंसी की योजना बना चुके थे।

24 जून को कोलकाता से आए वकील और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत ‘आंतरिक आपातकाल’ लगाने की सलाह दी। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इसे बिना सवाल स्वीकार किया। देर रात 11:45 बजे आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर हो गए।

उसके बाद जो हुआ वह लोकतंत्र के लिए भयावह था — विपक्षी नेताओं को रातों-रात गिरफ़्तार कर लिया गया। जेपी (जयप्रकाश नारायण), मोरारजी देसाई, चंद्रशेखर, राज नारायण और बीजू पटनायक समेत सैकड़ों नेताओं को जेल में डाल दिया गया। अखबारों की बिजली काट दी गई। प्रेस को पूरी तरह सेंसर कर दिया गया।

26 जून की सुबह, जब देश जागा, तो रेडियो पर इंदिरा गांधी का संदेश सुनने को मिला — “राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।” लेकिन हकीकत में पूरा देश डरा हुआ था। लोकतंत्र कैद हो चुका था।

यह आपातकाल 21 महीने तक चला, जिसने भारत के लोकतांत्रिक इतिहास पर गहरे घाव छोड़े। नागरिक स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति के अधिकार — सबकुछ छीन लिया गया था।

आपातकाल एक ऐसा समय था जब सत्ता की भूख ने संविधान की आत्मा को कुचल दिया। संजय गांधी की छाया सरकार, गिरफ्तारी का भय, और अभिव्यक्ति पर बंदिश — यही थे उस दौर के प्रतीक।

इंदिरा गांधी ने अपने निर्णय को “आवश्यक” बताया, लेकिन इतिहास आज भी इसे तानाशाही के उदाहरण के रूप में याद करता है।

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